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शिक्षण संस्थानों में कार्यस्थल का वातावरण और कार्यक्षमता : एक अध्ययन

प्रभात संवाद, 24 मार्च, जयपुर। मानव जीवन का दूसरा प्रमुख उद्देश्य अर्थ है क्योंकि मानव जीवन संचालित करने के लिए अर्थ की आवश्यकता अपरिहार्य है। अर्थ केवल व्यक्तिगत रूप से ही नहीं अपितु समग्र रूप से देश की अर्थव्यवस्था का अभिन्न तत्व है। अर्थाजन की क्षमता कार्य की प्रकृति एवं व्यक्ति की कार्य क्षमता पर निर्भर है। व्यक्ति की उत्पादकता एवं कार्य क्षमता में कार्य स्थल के वातावरण की प्रमुख भूमिका है। आज का लेख कार्य क्षमता व कार्य स्थल के मध्य संबंध स्थापित करने का प्रयास करता है।
मेरा व्यक्तिगत विचार है कि जब व्यक्ति वातानुकूलित वातावरण में कार्य करता है तो वह अपनी कार्य क्षमता में वृद्धि कर सकता है। एक कार्य स्थल पर प्रशासनिक व्यक्तियों का विश्वास सहकर्मियों के साथ सामंजस्य उचित व्यवहार कार्मिकों को प्रभावी रूप से एवं अधिक उत्पादकता के साथ कार्य करने के लिए प्रेरित करता है। इस विचार की व्यावहारिकता को मापने हेतु 10 संस्थानों जिनमें प्रमुखतया विद्यालय या महाविद्यालय सम्मिलित थे के कार्यस्थल वातावरण एवं कार्य क्षमता के मध्य संबंध हेतु अध्ययन किया गया। अध्ययन के दौरान निम्न तथ्य सामने आए।
इन संस्थानों को प्रमुख रूप से तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। प्रथम श्रेणी में ऐसे संस्थान जहां परंपरागत व्यवस्थाओं की प्रमुखता है अनुशासन एवं वेतन अवकाश के निश्चित नियमों को अधिक महत्व दिया जाता है। इस प्रकार के संस्थान प्रायः काफी समय से संचालित होने एवं संसाधनों की उचित व्यवस्था होने के कारण शिक्षकों एवं छात्रों का संतुष्टि का स्तर अच्छा होता है। वहां छात्रों में भी अधिक अनुशासन देखने को मिला। कार्यभार उचित सीमा में होने कार्य के अनुपात में वेतन एवं अवसरों की उपलब्धता के कारण शिक्षक संतुष्ट एवं मानसिक तनाव से कम ग्रसित पाए गए।
द्वितीय श्रेणी में ऐसे संस्थान जहां पूर्णतया वैश्वीकरण की अवधारणाओं पर आधारित अधिक उन्मुक्त वातावरण उपलब्ध है। इस प्रकार के संस्थानों में वैचारिक स्वतंत्रता के साथ अनुशासन देखा गया। जहां पश्चिमी मान्यताओं के अनुसार मानवता केंद्रित अवधारणाओं की प्रमुखता होती है। लोकतांत्रिक व्यवस्था पर विश्वास छात्रों को उपयुक्त वातावरण उपलब्ध करवाता है। आय एवं संसाधनों संबंधी अपेक्षाएं भी संतोषजनक होती हैं। एवं कार्यभार का उचित संयोजन देखने को मिलता हैए अतः शिक्षकों एवं छात्रों में मानसिक तनाव कम देखने को मिला।
तृतीय श्रेणी में ऐसे विद्यालय जो आधुनिक पद्धति एवं परंपरागत व्यवस्था के मध्य सामंजस्य का प्रयास कर रहे हैं वहां शिक्षकों एवं छात्रों में मानसिक तनाव का भाव देखा गया। परंपरागत संस्कार एवं वैचारिक स्वतंत्रता की ऊहापोह में उचित समन्वय के अभाव में कार्य प्रभावित होते हैं। न ही वे उन्मुक्त हैं न ही परम्पराओं से बंधे हुए। शिक्षा का स्तर भी उन्नत नहीं पाया गया। संसाधनों का अभाव मुश्किलों को और बढ़ा देता है क्योंकि प्रायः इस प्रकार के विद्यालय मध्यम आय वाले ही हैं।
शिक्षकों पर कार्यभार अधिक होने एवं शिक्षण के अतिरिक्त अन्य कार्यों का भार उनके मानसिक तनाव में बढ़ोतरी का कारण बन जाता है। आनुपातिक आय नहीं मिल पाना एक और कारण है। प्रायः शिक्षक शिक्षण के उद्देश्य की प्राथमिकता के स्थान पर पारिवारिक जिम्मेदारियों अथवा पढ़ाई के साथ वित्तीय सहायता या आय के माध्यम के रूप में निकटवर्ती विद्यालय चुनते हैं। स्थायी पदों की कमी शिक्षकों के व्यवहार को प्रभावित करती है। संस्थान कम वेतन पर अस्थाई शिक्षकों को प्राथमिकता देती है एवं ऐसे शिक्षक जिन्हंर अनुभव अधिक होने के कारण उनके वेतन में बढ़ोतरी करना आवश्यक होता हैए बजाय वेतन वृद्धि करने के उन्हें बाहर का रास्ता दिखाने को मुनासिब समझते हैं। जिससे अविश्वास में बढ़ोतरी होती है स्थायित्व में कमी आती है। अंततः शिक्षण के स्तर में गिरावट एवं संस्थान के प्रति समर्पण एवं श्रद्धा में कमी होती है। ऐसी स्थिति में मानसिक तनाव उनके व्यवहार या जीवन का अभिन्न अंग बन जाता है। शिक्षण स्तर में कमी अंततः विद्यार्थियों के अवसरों में कमी का कारण बनती है।
संपूर्ण विश्लेषण को सारांश रूप से कहा जा सकता है कि संस्थानों में जहां स्थायी पद हैं वेतन.अवकाश के सर्वमान्य नियमों की पालना होती है वहाँ शिक्षकों का संस्थान के प्रति समर्पण एवं विश्वास अधिक होता है। अनुशासन एवं अवसरों की उपलब्धता का तत्व मौजूद होता है। संस्थान में विश्वासए समन्वय स्वतंत्रता का स्थान सुनिश्चित होने पर ही शिक्षकों की कार्यक्षमता में वृद्धि की गुंजाइश होती है। अन्यथा अर्थ की पूर्ति के लिए संस्थान चलाना और संस्थान में कार्य करना दोनों पक्षों की मजबूरी बन जाती है जो मानसिक एवं शैक्षणिक संतुष्टि को पुष्ट करने में पूर्णतया असफल हो जाती है।
विद्यार्थियों का भविष्य जिन संस्थानों में है वहाँ प्रतिकूल वातावरण न केवल वहाँ कार्यरत शिक्षकों कर्मचारियों के जीवन को प्रभावित करता है अपितु उन मासूम विद्यार्थियों के जीवन की दिशा को पूर्णतया बदल देता है उनके अवसरों का गला घोंट देता है उनकी क्षमताओं को सीमित कर देता है। ये निष्कर्ष केवल शैक्षणिक संस्थानों पर ही नहीं व्यावसायिक एवं सार्वजनिक संस्थानों पर भी लागू होते हैं। सरकार की भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। सरकारों की नीतियाँ इस अनुकूल वातावरण को बनाने में प्रेरक की भांति होती हैं। सरकारें शिक्षकों एवं विद्यार्थियों के हितों को सुनिश्चित करने हेतु नीति निर्माण मे प्रमुख प्रावधान सम्मिलित कर सकती है वेतन विसंगतियों को दूर करने के उपाय आचार विचार के लिए मंचए अनैतिक गतिविधियों या आचरण के विरुद्ध शिकायत करने एवं उनके निपटारे हेतु एक प्रथक संस्था की स्थापना जैसे विषय नीति का भाग हो सकते है वातावरण ही अंततः व्यवहार को प्रभावित करेगा और उसी के अनुरूप परिणाम होंगे। जैसा खाद.बीज.पानी.हवा पौधे को मिलेगा वैसा ही वो पेड़ बनेगा और वैसे ही फल होंगे।


डॉ.सरोज जाखड़

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