ओपिनियन

नारी सशक्तिकरण और पारिवारिक-सामाजिक परिवर्तन एक चिंतन


12 दिसंबर, जयपुर।
आज के परिप्रेक्ष्य में जब महिलाएँ आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनने के लिए घर से बाहर काम कर रही हैं, तो यह केवल आय का स्रोत नहीं रह गया। बल्कि समाज में उनके सम्मान और आत्मसम्मान की मांग भी बन गया है। पारंपरिक पुरुषप्रधान समाज में अक्सर यही धारणा रही है कि जो कमाता है, वही सम्मान का अधिकारी है। परन्तु घर के अंदर लगातार 24 घंटे की निःस्वार्थ सेवा करने के बाद भी महिलाओं को अक्सर वह सम्मान और मान्यता नहीं मिलती जो मिलनी चाहिए थी। इसी असमंजस और उपेक्षा के कारण महिलाओं ने घर के बाहर कदम रखा और अपनी प्रतिभा, परिश्रम व क्षमता से आत्मनिर्भरता सिद्ध की। महिला सशक्तिकरण ने समाज को जिज्ञासु और विवश किया है। अब पुरुष और समाज दोनों को यह विचार करने पर मजबूर होना पड़ा है कि यदि महिलाएँ प्रोत्साहित होतीं और समान सम्मान पातीं, तो पारिवारिक जीवन में कई तनाव स्वयं समाप्त हो सकते थे। परंपरागत भूमिकाओं में बँधी रहने पर भी यदि परिवार में सम्मान एवं सहभागिता होती, तो घर की भूमिका बच्चों के पालन-पोषण, अनुशासन और मानसिक शांति सहज बनी रहती। परन्तु जब महिलाएँ अपनी पहचान व स्वाभिमान के लिए बाहर काम करने लगती हैं और पुरुष पक्ष उनके प्रयासों का सम्मान नहीं करता, तो रिश्तों में तनाव, दूरी और असहजता बढ़ सकती है।
यह भी सत्य है कि सामाजिक एवं आर्थिक बदलावों के साथ रिश्तों में परिवर्तन और संघर्ष होना स्वाभाविक है तलाक, लिविंग रिलेशन, अनुशासनहीनता या नशाखोरी जैसी समस्याएँ केवल महिलाओं के काम से नहीं जुड़ीं; किंतु पारिवारिक समर्थन, समझ और समानता की कमी इन समस्याओं को बढ़ाती है। यदि पुरुष और परिवार महिलाओँ के योगदान को समझें और सम्मान दें, तो घर-परिवार दोनों का संतुलन बेहतर बनाया जा सकता है। उसके विपरीत अगर उपेक्षा बनी रहती है, तो पारिवारिक ढाँचे में टूट-फूट का खतरा बढ़ता है।नारी सशक्तिकरण एक शाश्वत सत्य बनकर उभर रहा है महिलाएँ अब केवल परिवार की शरण नहीं, बल्कि समाज और अर्थव्यवस्था की सक्रिय भागीदार हैं। युवा पीढ़ी पर भी इसका प्रभाव स्पष्ट दिखता है; जहां कुछ लोग सकारात्मक रूप से विकास और समानता की ओर बढ़ रहे हैं, वहीं कुछ वर्ग मानसिक दबाव और असंतुलन का सामना कर रहे हैं। इसलिए यह विषय सिर्फ लिखने के लिए नहीं, बल्कि सोचने और क्रियात्मक बदलाव लाने के लिए भी अति महत्वपूर्ण है। समाज का विकास तभी संभव है जब हर व्यक्ति पुरुष और महिला को समान सम्मान, अधिकार और कर्तव्य मिलें। अधिकार तभी सार्थक होते हैं जब उनके साथ कर्तव्य की भावना जुड़ी हो। हमें पारिवारिक मूल्यों, संवाद और परस्पर सम्मान को प्राथमिकता देनी होगी, ताकि रिश्तों में आने वाली दरारें रोकी जा सकें और परिवार एक सुरक्षित, समरस्यपूर्ण स्थान बना रहे। अंत में यह आग्रह है कि हम सभी परिवार, समुदाय और नीतिगत स्तर पर महिलाओं के योगदान को स्वीकारें और उन्हें समान अवसर, सम्मान व सुरक्षा प्रदान करें। तभी परिवार और समाज दोनों का हित सुरक्षित रहेगा और एक समतापूर्ण, सुदृढ़ राष्ट्र का निर्माण सम्भव होगा।
डॉ सरोज जाखड़
समाजशास्त्री ,लेखिका

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