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धार्मिक पुनरुत्थान बनाम राष्ट्रीय विकास — आज का सबसे बड़ा प्रश्न

12 दिसंबर, जयपुर। आज एक अत्यंत चिंताजनक दृश्य मेरे सामने आया। जब मैं रास्ते से गुज़र रही थी, तो मैंने देखा कि शहर में जगह-जगह मंदिरों का पुनरुत्थान किया जा रहा है, भव्य निर्माण हो रहे हैं, व्यवस्थाओं को उत्कृष्ट बनाया जा रहा है। जिस सक्रियता से मंदिरों के विस्तार और सुंदरीकरण पर काम चल रहा है, वैसी सक्रियता शायद ही कभी शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार या सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए देखने को मिलती है।

मेरे अपने क्षेत्र में भी लगभग हर गली में विशाल और सजावटी मंदिर खड़े हो चुके हैं। पर मन में एक प्रश्न लगातार उठता रहा—
क्या वास्तव में हमारे विविधतापूर्ण देश की आज सबसे बड़ी ज़रूरत और अधिक मंदिर या मस्जिदें बनाना है?
या युवा पीढ़ी को शिक्षा, कौशल, रोजगार और सुरक्षा देना?
हमारी अर्थव्यवस्था गरीब नहीं है, बल्कि उसकी प्राथमिकताएँ कमजोर हैं। करोड़ों रुपये मंदिरों के पुनरुत्थान पर खर्च किए जा रहे हैं, वही धन यदि शिक्षा, स्वास्थ्य, नाली-सीवरेज, सड़कें या रोज़गार सृजन पर लगाया जाए, तो भारत दुनिया की सबसे मजबूत अर्थव्यवस्था बन सकता है।
लेकिन दुर्भाग्य यह है कि धार्मिक आडंबर और राजनीतिक लोकप्रियता के नाम पर विशाल धन का उपयोग सिर्फ उद्घाटन, शोभायात्राओं और समारोहों में हो रहा है, न कि जनहित में।
समस्या गरीबी या जनसंख्या नहीं है—
समस्या है हमारा अंधभक्तपन, आवश्यकता से अधिक धार्मिकता, और राजनीतिक नेताओं का इसी भावना का लाभ उठाना।
आज जो समाज को बेहतर दिशा देने में सक्षम नहीं, वह ‘साधु’ या ‘धार्मिक नेता’ बनकर राजनीति को अपना साधन बना रहा है।
और यह और अधिक दुखद है कि आम जनता स्वयं उनके पीछे चलकर अपने विकास को पीछे छोड़ देती है।
80 वर्षों की आज़ादी के बाद भी क्या हम धर्म और अंधविश्वास की बेड़ियों से मुक्त होकर मानवता, शिक्षा और राष्ट्रीयता को प्राथमिकता नहीं दे सकते?
भारत को केवल राजनीतिक अखंडता नहीं—
आर्थिक, सामाजिक और वैचारिक एकता की आवश्यकता है।
जब तक हम मंदिर–मस्जिद के नाम पर बंटते रहेंगे, तब तक उन्नति के अवसर हमारी आँखों के सामने ही नष्ट होते रहेंगे।
आज सबसे अधिक पीड़ा इस बात की है कि देश गलत दिशा में जाता हुआ दिख रहा है और जनता अभी भी मौन है।
हर गली में जितना धन मंदिरों पर लगा है, यदि उसी से नालियाँ बन जातीं, सड़कें सुधर जातीं, स्कूलों में अच्छे शिक्षक लग जाते, तो भारत का स्वरूप ही बदल जाता।
निष्कर्ष
धर्म व्यक्तिगत आस्था का विषय है, पर राष्ट्र निर्माण विवेक और ज़िम्मेदारी से होता है।
भारत तभी आगे बढ़ेगा जब हम धार्मिक दिखावे से ऊपर उठकर शिक्षा, रोजगार, स्वच्छता और सामाजिक न्याय को प्राथमिकता देंगे।
वरना हम विकास नहीं, केवल विभाजन की ओर बढ़ते रहेंगे।

डॉ सरोज जाखड़
समाज शास्त्री व लेखिका

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